नवगीतकार- पूर्णिमा वर्मन
संस्करण-2014, मूल्य- 120 रुपए
प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन, 942 आर्य कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद
.....................
‘चोंच में आकाश’ शीर्षक पढ़ते ही मन में एक बिम्ब उभरने लगता है और अनायास ही शिवमंगल सिंह सुमन की पंक्तियाँ याद आने लगती हैं- ‘ऐसे थे अरमान कि/ उड़ते नील गगन की सीमा पाने/ लाल किरण सी चोंच खोल/ चुगते तारक अनार के दाने....’ जिसके पंख होते हैं, उसके सपने भी बड़े होते हैं। अपनी नन्हीं-सी चोंच में समूचा आकाश भरकर उड़ने की तमन्ना निश्चय ही घोर नैराश्य में भी आशा का संचार कर देती है। कविता का उद्देश्य भी यही है कि निराशा के अंधकार में आशा का दीप जला देना।
पूर्णिमा वर्मन में गजब का उत्साह है, जिस प्रकार एक नन्हा-सा पक्षी अपनी चोंच में समूचा आकाश भरकर उड़ने की परिकल्पना करता है उसी प्रकार पूर्णिमा वर्मन भी अपने सीमित संसाधनों किन्तु अदम्य उत्साह से हिन्दी भाषा और साहित्य को सम्पूर्ण विश्व में एक सम्मानजनक स्थान दिलाने का पूरे मनोयोग से प्रयास कर रही हैं। यह सच है कि जो लोग वास्तव मे कुछ करना चाहते हैं वे आलोचनाओं की परवाह नहीं करते, कार्य की सफलता के मार्ग में आने वाली वाधाओं की चिन्ता नहीं करते बस कार्य शुरू कर देते हैं और जिस कार्य के पीछे निहित उद्देश्य लोक मंगलकारी होता है उस कारवां में लोग अपने आप आते रहते हैं, जुड़ते रहते हैं। नवगीत की पाठशाला के माध्यम से हाशिये पर पहुँच चुके नवगीत को पूरी दुनिया के कोने-कोने तक पहुँचा देने का भारी भरकम संकल्प सच में एक नन्हीं चिड़िया के द्वारा अपनी नन्हीं सी चोंच में विस्तृत आकाश को लेकर उड़ने की ही जीवंत परिकल्पना है। ‘चोंच में आकाश’ संकलन पूर्णिमा जी के नवगीत की परिकल्पना पथ का शुरूआती पड़ाव है।
जीवन की आपाधापी में व्यक्ति इतना व्यस्त हो जाता है कि वह कब, कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है इसका भी होश उसे नहीं रहता। घर, परिवार और दुनियादारी की औपचारिक भाग-दौड़ में मशीन बनकर व्यक्ति अपने को खपाता रहता है और इन सब में इतना खो जाता है कि वह अपने मन से कभी साक्षात्कार नहीं करता, मन की बात नहीं सुनता, इस कमी को जब एक रचनाकार महसूस करता है तो उसकी आत्मस्वीकृति इन शब्दों में गीत बनकर फूट पड़ती है-
मौसम आये मौसम बीते/ हम नहिं चेते / अपने छूटे देश बिराना/ सपने रीते/ आवाजों में/ रेलों और/ जहाजों में/ जाने कैसी दौड़ थी जिसमें/ अपना मन ही नहीं सुना ... पृ0-36
ताड़ के पेड़ों को यूँ तो हम सभी लगभग प्रतिदिन ही देखते रहते हैं परन्तु जब व्यक्ति के अन्दर का नवगीतकार उन्हें देखता है तो बात ही कुछ और होती है। ताड़ का पेड़ उसे मानव षरीर लगता है और उसके पत्तों के नीचे का डंठल मनुष्य के हाथ जैसे लगते हैं उसके ऊपर हथेली की तरह उँगलियाँ जिसे वह ऊपर उठाये हुये है ऐसा लगता है मानो कोई जटा-जूट योगी गहन तपस्या में लीन हों। ताड़ों का ऐसा अभिनव मानवीकरण पाठक को प्रभावित तो करता ही है साथ ही यह भी स्पष्ट करता है कि कवयित्री अपने वतन से सुदूर रहकर रेगिस्तान के ताड़ों के सौन्दर्य में भी भारतीयता की झलक देख लेती है। लय और प्रवाह ऐसा कि पढ़ते समय अपने आप कण्ठ गुनगुनाने लगता है-
हाथ ऊपर को उठाये/ माँगते सौगात/ निश्चल/ ताड़ों की क्या बात/ गहन ध्यान में लीन/ हवा में/ धीरे-धीरे हिलते/ लंबे-लंबे रेशे बिलकुल/ जटा जूट से खिलते/ निपट पुराना वल्कल पहने/ संत पुरातन कोई गहने/ नभ तक ऊपर उठे हुए हैं/ धरती के अभिजात..... पृ0-37
दैनिक जीवन की आम बातों को गीत के कथ्य में प्रस्तुत करना नवगीत की अपनी विषेषता है, गीत में सामान्य से लगने वाले इन विषयों को समाहित करना निश्चय ही एक बड़ी चुनौती रही है, न जाने कितने छन्द और गीत के कवि इस चुनौती के समक्ष अपनी हार मानकर ही गीत को अलविदा कह गद्य कविता की ओर पलायन कर गये परन्तु जिनके पास अपना अनुभव है, जिनका अपनी भाषा पर अधिकार है और जिनके मन की भूमि टटके विचारों के लिए उपजाऊ है वे जनजीवन की सामान्य बातों को नवगीतों के रूप में बेहद सलीके के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। पूर्णिमा वर्मन हिन्दी भाषा और साहित्य को दुनिया के सामने उसका सम्मान दिलाने की ही वकालत नहीं करती हैं वे चाहती हैं कि हिन्दी पढ़ने वालों को कभी बेकारी का दंश न झेलना पड़े, हिन्दी को उसका सम्मान मिले, यह किन्हीं दस-बीस व्यक्तियों की इच्छा नहीं है यह तो जन गण मन की अभिलाषा है, और जन गण के मन की अभिलाषा का सम्मान तो होना ही चाहिए। अपने नवगीतों के माध्यम से वे ऐसी अलख जगाती रही हैं। उनके इस नवगीत को नुक्कड़ नाटक के रूप में भी बहुत प्रभावशाली ढँग से प्रस्तुत किया जा सकता है-
जन गण मन की अभिलाषा है/ कोटि प्रयत्नों की आशा है/ शिक्षा और/ धनार्जन में भी/ इसका हो आधार/ हिन्दी पढ़ने लिखने वाला/ कभी न हो बेकार ..... पृ0-51
जीवन की आपाधापी में व्यक्ति बहुत कुछ खो देता है और फिर उस खाये हुये के लिये जीवन के बहुमूल्य पल खो जाने की पीड़ा में रोते-कराहते बिता देता है, सोचने की बात है कि जो हमसे बिछुड़ गया या हमारी धन दौलत चली गई तो फिर उसके लिए रोते रहने से वह वापस ता आ नहीं जायेगी उलटे हम जो कुछ कर सकते थे उससे भी वंचित रह गये इसलिए ‘बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि ले’ इसी से जीवन में सेख और सन्तोष मिलेगा, यह मूलमंत्र को दैनिक जीवन का मंत्र बना लेना ही व्यावहारिकता का परिचायक है। पूर्णिमा जी ने इस बहुत उपयोगी तथ्य को नवगीत में बहुत सहजता के साथ प्रस्तुत किया है। हमारा देश कभी सोने की चिड़िया थी, अब अगर वह सोने की चिड़िया उड़ गई तो उड़ गई, उसके उड़ जाने के दुख को सहेज कर रखने और दिन-रात दुखी होने से वह लौटकर तो आ नहीं जायेगी हाँ यदि नया संकल्प लेकर फिर कोशिश करें तो हम कल (मशीनों) के युग में फिर से एक नया भारत बना सकते हैं। नवगीत के माध्यम से नई सोच का यह पैगाम देना रचनाकार के अभिनव चिंतन का परिचायक है। तिरंगा शीर्षक गीत में -
कितना पाया और क्या खोया/ इस गणित में कैसा जाना/ स्वर्ण-चिड़िया उड़ गयी तो/ कैसा उसका दुख मनाना/ ताल दो मिलकर/ कि कलयुग में/ नया भारत बनाना/ सिर उठाना/ गर्व से जय हिन्द गाना ..... पृ0-53
अवसरवाद की प्रवृत्ति आज इस कदर समूचे समाज में परिव्याप्त है कि अपने स्वाथ्र के लिए व्यक्ति सब कुछ करने को तैयार रहता है, हर तरह का ढोंग वह कर सकता है दूसरी तरफ राजनीति की वास्तविकता से सभी परिचित हैं ही ऐसे में अपने लिए स्थान बना पाना बहुत कठिन हो गया है, इस स्थिति को कुहनियों ओर घुटनों के प्रतीकों से जितनी सहजता से प्रस्तुत कर दिया गया है वह किसी अनुभवी कवि की कलम से ही सम्भव है, एक चित्र सा बनकर उभर आता है जनसामान्य के दैनिक संघर्ष का-
सत्य अहिंसा दया धर्म/ अवसरवादों ने लूटे/ सरकारी दावे औ‘ वादे/ सारे निकले झूठे/ भीड़ बहुत थी/ अवसर कम थे/ जगह बनाती रहीं कोहनियाँ/ घुटने बोल गए ..... पृ0-60
हमारे समाज में नारी कम संघर्ष नहीं करती है, वह दिन-रात मेहनत करती है परन्तु समाज ने रूढ़ियों की जो भारी-भरकम जंजीर उसके पैरों में डाल रखी है, वह उसका खुलकर विरोध भी नहीं कर पा रही है, नारी की इस पीड़ा को कवयित्री महसूस कर रही है, जिस तरह से इतने जटिल विषय को इतनी सहजता से कह दिया है, इन पंक्तियों की व्यंजना को यहाँ महसूस किया जा सकता है, खास बात यह है कि नारी की दशा पर यहाँ न तो आक्रोश है, न गाली की भाषा है पर व्यंजना की मार ऐसी जोरदार है कि पंक्तियों को कई-कई बार पढ़ने का मन होता है और हर बार मन की संवेदना आहत होती है-
यह सड़क दिन रात चलती/ पर वहीं है/ इस सड़क के पैर/ में जंजीर सदियों से पड़ी है/ रूढ़ियों पर सर पटकती / खानदानी नार है ..... पृ0-61
समाज में एक तरफ नारी उत्पीड़न का सामाजिक रोग सदियों से चला आ रहा है जिससे हर संवेदनशील आहत है वहीं दूसरी ओर मीडिया के द्वारा अपना दायित्व निर्वहन न करना, दूरदर्शन पर भारतीय संस्कृति की धज्जियाँ उड़ा कर रख देने वाले कार्यक्रमों का प्रसारण और आम आदमी को गरीबी में जीने के लिए अभिशप्त होना, यह सब वर्तमान समय की बड़ी चिन्ता है-
बिके मीडिया के महामहिम/ टीवी पर हावी है पश्चिम/ जश्न हो रहा है सातों दिन/ चमक-दमक में भूले रहकर/ आम जनों के कटें न दुर्दिन ..... पृ0-65
पूर्णिमा वर्मन के नवगीतों में विविधता देखने को मिलती है, उन्होंने वर्तमान समय की ज्वलंत समस्याओं को अपने नवगीतों का विषय बनाया है, वे भारत से दूर रहकर भी यहाँ की परम्पराओं, संस्कृति, रीति रिवाज और पारिवारिक व सामाजिक रिश्तों से अपने को पूरी तरह से जोड़े हुये हैं। एक पिता अपनी सन्तान की छोटी-छोटी बातो का पूरा ध्यान रखता है। इस गीत को पढ़कर हर किसी को अपने पिता की याद आ ही जायेगी-
हाथ पकड़ कर/ भरी सड़क को पार कराते/ उठा तर्जनी/ दूर कहीं गंतव्य दिखाते/ थक जाने पर गोद उठाते ..... पृ0-70
कविता का उद्देश्य है कि वह सकारात्मक सोच को बढ़ावा दे, वाधाएँ तो आती ही रहती हैं जो वाधाओं को, व्याथाओं को पार नहीं कर पाता है उन्हीं में उलझा रह जाता है वह जीवन में सफल भी नहीं हो पाता है इसलिए उदासी को छोड़कर पथ में निरन्तर बढ़े चलना ही सफलता का मूलमंत्र है। गीत की यह पंक्तियाँ किसी भी उदासमना को उदासी से उभारने तथा उदासी की हलचल को छोड़कर मंजिल की दिशा में उड़ चलने की अदम्य प्रेरणा दे सकती हैं-
एक पाखी/ पंख में उल्लास लेकर/ उड़ रहा है/ जो व्यथा को/ पार कर पाया नहीं/ वह कथा में/ सार भर पाया नहीं/ छोड़ हलचल/ बस उड़ा चल/ क्यों उदासी की/ डगर में मुड़ रहा है ..... पृ0-103
पूर्णिमा वर्मन का यह नवगीत संग्रह ‘कला कला के लिए’ के निकट न होकर ‘कला जीवन के लिए’ के निकट है। जीवन में आने वाली व्यावहारिक समस्याओं को नवगीतों का विषय बनाया गया है। लय और प्रवाह की डोर में बँधे इन नवगीतों की एक विशेषता यह भी है कि इनमें से अनेक नवगीतों को संगीत के साथ गाया जा सकता है और कई नवगीतों का मंचन भी किया जा सकता है। जो लोग पूर्णिमा वर्मन से नहीं मिले हैं वे ‘चोंच में आकाश’ के नवगीतों को पढ़कर उनसे मिलने का अहसास कर सकेंगे।
-समीक्षक
डॉ0 जगदीश व्योम
संस्करण-2014, मूल्य- 120 रुपए
प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन, 942 आर्य कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद
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‘चोंच में आकाश’ शीर्षक पढ़ते ही मन में एक बिम्ब उभरने लगता है और अनायास ही शिवमंगल सिंह सुमन की पंक्तियाँ याद आने लगती हैं- ‘ऐसे थे अरमान कि/ उड़ते नील गगन की सीमा पाने/ लाल किरण सी चोंच खोल/ चुगते तारक अनार के दाने....’ जिसके पंख होते हैं, उसके सपने भी बड़े होते हैं। अपनी नन्हीं-सी चोंच में समूचा आकाश भरकर उड़ने की तमन्ना निश्चय ही घोर नैराश्य में भी आशा का संचार कर देती है। कविता का उद्देश्य भी यही है कि निराशा के अंधकार में आशा का दीप जला देना।
पूर्णिमा वर्मन में गजब का उत्साह है, जिस प्रकार एक नन्हा-सा पक्षी अपनी चोंच में समूचा आकाश भरकर उड़ने की परिकल्पना करता है उसी प्रकार पूर्णिमा वर्मन भी अपने सीमित संसाधनों किन्तु अदम्य उत्साह से हिन्दी भाषा और साहित्य को सम्पूर्ण विश्व में एक सम्मानजनक स्थान दिलाने का पूरे मनोयोग से प्रयास कर रही हैं। यह सच है कि जो लोग वास्तव मे कुछ करना चाहते हैं वे आलोचनाओं की परवाह नहीं करते, कार्य की सफलता के मार्ग में आने वाली वाधाओं की चिन्ता नहीं करते बस कार्य शुरू कर देते हैं और जिस कार्य के पीछे निहित उद्देश्य लोक मंगलकारी होता है उस कारवां में लोग अपने आप आते रहते हैं, जुड़ते रहते हैं। नवगीत की पाठशाला के माध्यम से हाशिये पर पहुँच चुके नवगीत को पूरी दुनिया के कोने-कोने तक पहुँचा देने का भारी भरकम संकल्प सच में एक नन्हीं चिड़िया के द्वारा अपनी नन्हीं सी चोंच में विस्तृत आकाश को लेकर उड़ने की ही जीवंत परिकल्पना है। ‘चोंच में आकाश’ संकलन पूर्णिमा जी के नवगीत की परिकल्पना पथ का शुरूआती पड़ाव है।
जीवन की आपाधापी में व्यक्ति इतना व्यस्त हो जाता है कि वह कब, कहाँ से कहाँ पहुँच जाता है इसका भी होश उसे नहीं रहता। घर, परिवार और दुनियादारी की औपचारिक भाग-दौड़ में मशीन बनकर व्यक्ति अपने को खपाता रहता है और इन सब में इतना खो जाता है कि वह अपने मन से कभी साक्षात्कार नहीं करता, मन की बात नहीं सुनता, इस कमी को जब एक रचनाकार महसूस करता है तो उसकी आत्मस्वीकृति इन शब्दों में गीत बनकर फूट पड़ती है-
मौसम आये मौसम बीते/ हम नहिं चेते / अपने छूटे देश बिराना/ सपने रीते/ आवाजों में/ रेलों और/ जहाजों में/ जाने कैसी दौड़ थी जिसमें/ अपना मन ही नहीं सुना ... पृ0-36
ताड़ के पेड़ों को यूँ तो हम सभी लगभग प्रतिदिन ही देखते रहते हैं परन्तु जब व्यक्ति के अन्दर का नवगीतकार उन्हें देखता है तो बात ही कुछ और होती है। ताड़ का पेड़ उसे मानव षरीर लगता है और उसके पत्तों के नीचे का डंठल मनुष्य के हाथ जैसे लगते हैं उसके ऊपर हथेली की तरह उँगलियाँ जिसे वह ऊपर उठाये हुये है ऐसा लगता है मानो कोई जटा-जूट योगी गहन तपस्या में लीन हों। ताड़ों का ऐसा अभिनव मानवीकरण पाठक को प्रभावित तो करता ही है साथ ही यह भी स्पष्ट करता है कि कवयित्री अपने वतन से सुदूर रहकर रेगिस्तान के ताड़ों के सौन्दर्य में भी भारतीयता की झलक देख लेती है। लय और प्रवाह ऐसा कि पढ़ते समय अपने आप कण्ठ गुनगुनाने लगता है-
हाथ ऊपर को उठाये/ माँगते सौगात/ निश्चल/ ताड़ों की क्या बात/ गहन ध्यान में लीन/ हवा में/ धीरे-धीरे हिलते/ लंबे-लंबे रेशे बिलकुल/ जटा जूट से खिलते/ निपट पुराना वल्कल पहने/ संत पुरातन कोई गहने/ नभ तक ऊपर उठे हुए हैं/ धरती के अभिजात..... पृ0-37
दैनिक जीवन की आम बातों को गीत के कथ्य में प्रस्तुत करना नवगीत की अपनी विषेषता है, गीत में सामान्य से लगने वाले इन विषयों को समाहित करना निश्चय ही एक बड़ी चुनौती रही है, न जाने कितने छन्द और गीत के कवि इस चुनौती के समक्ष अपनी हार मानकर ही गीत को अलविदा कह गद्य कविता की ओर पलायन कर गये परन्तु जिनके पास अपना अनुभव है, जिनका अपनी भाषा पर अधिकार है और जिनके मन की भूमि टटके विचारों के लिए उपजाऊ है वे जनजीवन की सामान्य बातों को नवगीतों के रूप में बेहद सलीके के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। पूर्णिमा वर्मन हिन्दी भाषा और साहित्य को दुनिया के सामने उसका सम्मान दिलाने की ही वकालत नहीं करती हैं वे चाहती हैं कि हिन्दी पढ़ने वालों को कभी बेकारी का दंश न झेलना पड़े, हिन्दी को उसका सम्मान मिले, यह किन्हीं दस-बीस व्यक्तियों की इच्छा नहीं है यह तो जन गण मन की अभिलाषा है, और जन गण के मन की अभिलाषा का सम्मान तो होना ही चाहिए। अपने नवगीतों के माध्यम से वे ऐसी अलख जगाती रही हैं। उनके इस नवगीत को नुक्कड़ नाटक के रूप में भी बहुत प्रभावशाली ढँग से प्रस्तुत किया जा सकता है-
जन गण मन की अभिलाषा है/ कोटि प्रयत्नों की आशा है/ शिक्षा और/ धनार्जन में भी/ इसका हो आधार/ हिन्दी पढ़ने लिखने वाला/ कभी न हो बेकार ..... पृ0-51
जीवन की आपाधापी में व्यक्ति बहुत कुछ खो देता है और फिर उस खाये हुये के लिये जीवन के बहुमूल्य पल खो जाने की पीड़ा में रोते-कराहते बिता देता है, सोचने की बात है कि जो हमसे बिछुड़ गया या हमारी धन दौलत चली गई तो फिर उसके लिए रोते रहने से वह वापस ता आ नहीं जायेगी उलटे हम जो कुछ कर सकते थे उससे भी वंचित रह गये इसलिए ‘बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि ले’ इसी से जीवन में सेख और सन्तोष मिलेगा, यह मूलमंत्र को दैनिक जीवन का मंत्र बना लेना ही व्यावहारिकता का परिचायक है। पूर्णिमा जी ने इस बहुत उपयोगी तथ्य को नवगीत में बहुत सहजता के साथ प्रस्तुत किया है। हमारा देश कभी सोने की चिड़िया थी, अब अगर वह सोने की चिड़िया उड़ गई तो उड़ गई, उसके उड़ जाने के दुख को सहेज कर रखने और दिन-रात दुखी होने से वह लौटकर तो आ नहीं जायेगी हाँ यदि नया संकल्प लेकर फिर कोशिश करें तो हम कल (मशीनों) के युग में फिर से एक नया भारत बना सकते हैं। नवगीत के माध्यम से नई सोच का यह पैगाम देना रचनाकार के अभिनव चिंतन का परिचायक है। तिरंगा शीर्षक गीत में -
कितना पाया और क्या खोया/ इस गणित में कैसा जाना/ स्वर्ण-चिड़िया उड़ गयी तो/ कैसा उसका दुख मनाना/ ताल दो मिलकर/ कि कलयुग में/ नया भारत बनाना/ सिर उठाना/ गर्व से जय हिन्द गाना ..... पृ0-53
अवसरवाद की प्रवृत्ति आज इस कदर समूचे समाज में परिव्याप्त है कि अपने स्वाथ्र के लिए व्यक्ति सब कुछ करने को तैयार रहता है, हर तरह का ढोंग वह कर सकता है दूसरी तरफ राजनीति की वास्तविकता से सभी परिचित हैं ही ऐसे में अपने लिए स्थान बना पाना बहुत कठिन हो गया है, इस स्थिति को कुहनियों ओर घुटनों के प्रतीकों से जितनी सहजता से प्रस्तुत कर दिया गया है वह किसी अनुभवी कवि की कलम से ही सम्भव है, एक चित्र सा बनकर उभर आता है जनसामान्य के दैनिक संघर्ष का-
सत्य अहिंसा दया धर्म/ अवसरवादों ने लूटे/ सरकारी दावे औ‘ वादे/ सारे निकले झूठे/ भीड़ बहुत थी/ अवसर कम थे/ जगह बनाती रहीं कोहनियाँ/ घुटने बोल गए ..... पृ0-60
हमारे समाज में नारी कम संघर्ष नहीं करती है, वह दिन-रात मेहनत करती है परन्तु समाज ने रूढ़ियों की जो भारी-भरकम जंजीर उसके पैरों में डाल रखी है, वह उसका खुलकर विरोध भी नहीं कर पा रही है, नारी की इस पीड़ा को कवयित्री महसूस कर रही है, जिस तरह से इतने जटिल विषय को इतनी सहजता से कह दिया है, इन पंक्तियों की व्यंजना को यहाँ महसूस किया जा सकता है, खास बात यह है कि नारी की दशा पर यहाँ न तो आक्रोश है, न गाली की भाषा है पर व्यंजना की मार ऐसी जोरदार है कि पंक्तियों को कई-कई बार पढ़ने का मन होता है और हर बार मन की संवेदना आहत होती है-
यह सड़क दिन रात चलती/ पर वहीं है/ इस सड़क के पैर/ में जंजीर सदियों से पड़ी है/ रूढ़ियों पर सर पटकती / खानदानी नार है ..... पृ0-61
समाज में एक तरफ नारी उत्पीड़न का सामाजिक रोग सदियों से चला आ रहा है जिससे हर संवेदनशील आहत है वहीं दूसरी ओर मीडिया के द्वारा अपना दायित्व निर्वहन न करना, दूरदर्शन पर भारतीय संस्कृति की धज्जियाँ उड़ा कर रख देने वाले कार्यक्रमों का प्रसारण और आम आदमी को गरीबी में जीने के लिए अभिशप्त होना, यह सब वर्तमान समय की बड़ी चिन्ता है-
बिके मीडिया के महामहिम/ टीवी पर हावी है पश्चिम/ जश्न हो रहा है सातों दिन/ चमक-दमक में भूले रहकर/ आम जनों के कटें न दुर्दिन ..... पृ0-65
पूर्णिमा वर्मन के नवगीतों में विविधता देखने को मिलती है, उन्होंने वर्तमान समय की ज्वलंत समस्याओं को अपने नवगीतों का विषय बनाया है, वे भारत से दूर रहकर भी यहाँ की परम्पराओं, संस्कृति, रीति रिवाज और पारिवारिक व सामाजिक रिश्तों से अपने को पूरी तरह से जोड़े हुये हैं। एक पिता अपनी सन्तान की छोटी-छोटी बातो का पूरा ध्यान रखता है। इस गीत को पढ़कर हर किसी को अपने पिता की याद आ ही जायेगी-
हाथ पकड़ कर/ भरी सड़क को पार कराते/ उठा तर्जनी/ दूर कहीं गंतव्य दिखाते/ थक जाने पर गोद उठाते ..... पृ0-70
कविता का उद्देश्य है कि वह सकारात्मक सोच को बढ़ावा दे, वाधाएँ तो आती ही रहती हैं जो वाधाओं को, व्याथाओं को पार नहीं कर पाता है उन्हीं में उलझा रह जाता है वह जीवन में सफल भी नहीं हो पाता है इसलिए उदासी को छोड़कर पथ में निरन्तर बढ़े चलना ही सफलता का मूलमंत्र है। गीत की यह पंक्तियाँ किसी भी उदासमना को उदासी से उभारने तथा उदासी की हलचल को छोड़कर मंजिल की दिशा में उड़ चलने की अदम्य प्रेरणा दे सकती हैं-
एक पाखी/ पंख में उल्लास लेकर/ उड़ रहा है/ जो व्यथा को/ पार कर पाया नहीं/ वह कथा में/ सार भर पाया नहीं/ छोड़ हलचल/ बस उड़ा चल/ क्यों उदासी की/ डगर में मुड़ रहा है ..... पृ0-103
पूर्णिमा वर्मन का यह नवगीत संग्रह ‘कला कला के लिए’ के निकट न होकर ‘कला जीवन के लिए’ के निकट है। जीवन में आने वाली व्यावहारिक समस्याओं को नवगीतों का विषय बनाया गया है। लय और प्रवाह की डोर में बँधे इन नवगीतों की एक विशेषता यह भी है कि इनमें से अनेक नवगीतों को संगीत के साथ गाया जा सकता है और कई नवगीतों का मंचन भी किया जा सकता है। जो लोग पूर्णिमा वर्मन से नहीं मिले हैं वे ‘चोंच में आकाश’ के नवगीतों को पढ़कर उनसे मिलने का अहसास कर सकेंगे।
-समीक्षक
डॉ0 जगदीश व्योम
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